Wednesday, September 23, 2020

|| श्री माँ काली कवच || * Kali Kavach * ब्रह्मवैवर्तपुराण के गणपतिखण्ड and Durga Kavacham * दुर्गा कवच

|| श्री माँ काली कवच || * Kali Kavach स्रोत :- दशाक्षरी विद्या तथा कालीकवच का यह वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के गणपतिखण्ड में किया गया है।




नारदजी ने कहा - सर्वज्ञ नाथ! अब मैं आपके मुख से भद्रकाली-कवच तथा उस दशाक्षरी विद्यको सुनना चाहता हूँ।

 श्रीनारायण बोले - नारद! मैं दशाक्षरी महाविद्या तथा तीनों लोकों में दुर्लभ उस गोपनीय कवच का वर्णन करता हूँ, सुनो।

 ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा यही दशाक्षरी विद्या है। इसे पुष्करतीर्थ में सूर्य-ग्रहण के अवसर पर दुर्वासा ने राजा को दिया था।

उस समय राजा ने दस लाख जप करके मन्त्र सिद्ध किया और इस उत्तम कवच के पाँच लाख जप से ही वे सिद्धकवच हो गये।

जो तीनों लोकों में दुर्लभ है, उसदशाक्षरी विद्या को तो मैंने सुन लिया। अब मैं कवच सुनना चाहता हूँ, वह मुझसे वर्णन कीजिये।

तत्पश्चात् वे अयोध्या में लौट आये और इसी कवच की कृपा से उन्होंने सारी पृथ्वी को जीत लिया। नारदजी ने कहा - प्रभो!

मुने! वह कवच अत्यन्त गोपनीयों से भी गोपनीयतत्त्वस्वरूप तथा सम्पूर्ण मन्त्रसमुदाय का मूर्तिमान् स्वरूप है।

श्रीनारायण बोले- विप्रेन्द्र! पूर्वकाल में त्रिपुर-वध के भयंकर अवसर पर शिवजी की विजय के लिये नारायण ने कृपा करके शिव को जो परम अद्भुत कवच प्रदान किया था, उसका वर्णन करता हूँ, सुनो।

क्लीं कपाल की तथा ह्रीं ह्रीं ह्रीं नेत्रों की रक्षा करे।ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा सदा मेरी नासिका की रक्षा करे।

उसी को पूर्वकाल में शिवजी ने दुर्वासा को दिया था और दुर्वासा ने महामनस्वी राजा सुचन्द्र को प्रदान किया था।

ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा मेरे मस्तक की रक्षा करे।

क्रीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा सदा दाँतों की रक्षा करे। ह्रीं भद्रकालिके स्वाहा मेरे दोनों ओठों की रक्षा करे।

क्रीं कालिकायै स्वाहा सदा मेरी नाभि की रक्षा करे। ह्रीं कालिकायै स्वाहा सदा मेरे पृष्ठभाग की रक्षा करे।

ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा सदा कण्ठ की रक्षा करे।  ह्रीं कालिकायै स्वाहा सदा दोनों कानों की रक्षा करें।

क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा सदा मेरे कंधों की रक्षा करे। क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा सदा मेरेवक्ष:स्थल की रक्षा करे।

रक्तबीजविनाशिन्यै स्वाहा सदा हाथों की रक्षा करे। ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा सदा पैरों की रक्षा करे।

जल, स्थल और अन्तरिक्ष में सदा विश्वप्रसू रक्षा करें। वत्स!

ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा सदा मेरे सर्वाङ्ग की रक्षा करे। पूर्व में महाकाली और अगिन्कोण में रक्तदन्तिका रक्षा करें।

दक्षिण में चामुण्डा रक्षा करें। नैर्ऋत्यकोण में कालिका रक्षा करें। पश्चिम में श्यामा रक्षा करें।

वायव्यकोण में चण्डिका, उत्तर में विकटास्या और ईशानकोण में अट्टहासिनी रक्षा करें।

ऊर्ध्वभाग में लोलजिह्वा रक्षा करें। अधोभाग मे सदा आद्यामाया रक्षा करें।

सभी महादान, तपस्या और व्रत इस कवच की सोलहवीं कला की भी बराबरी नहीं कर सकते, यह निश्चित है।

यह कवच समस्त मन्त्रसमूह का मूर्तरूप, सम्पूर्ण कवचों का सारभूत और उत्कृष्ट से भी उत्कृष्टतर है;

इसे मैंने तुम्हें बतला दिया।इसी कवच की कृपा से राजा सुचन्द्र सातों द्वीपों के अधिपति हो गये थे।

इसी कवच के प्रभाव से पृथ्वीपति मान्धाता सप्तद्वीपवती पृथ्वी के अधिपति हुए थे।

 इसी  से सौभरि और पिप्पलायन योगियों में श्रेष्ठ कहलाये।

 जिसे यह कवच सिद्ध हो जाता है, वह समस्त सिद्धियों का स्वामी बन जाता है।

काली कवच
कालीकवचम्
 नारद उवाच
कवचं श्रोतुमिच्छामि तां विद्यां दशाक्षरीम् I
नाथ त्वत्तो हि सर्वज्ञ भद्रकाल्याश्च सांप्रतम् II 1 II

नारायण उवाच
श्रुणु नारद वक्ष्यामि महाविद्यां दशाक्षरीम् I
गोपनीयं कवचं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् II II

  ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहेति दशाक्षरीम् I
दुर्वासा हि ददौ राज्ञे पुष्करे सुर्यपर्वणि II II

दशलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धिः कृता पुरा I
 पञ्चलक्षजपेनैव पठन् कवचमुत्तमम् II II

 बभूव सिद्धकवचोSप्ययोध्यामाजगाम सः I
कृत्स्रां हि पृथिवीं जिग्ये कवचस्य प्रसादतः II II

नारद उवाच
श्रुता दशाक्षरी विद्या त्रिषु लोकेषु दुर्लभा I
अधुना श्रोतुमिच्छामि कवचं ब्रुहि मे प्रभो II II

नारायण उवाच
 श्रुणु वक्ष्यामि विप्रेन्द्र कवचं परामाद्भुतम् I
 नारायणेन यद् दत्तं कृपया शूलिने पुरा II II

 त्रिपुरस्य वधे घोरे शिवस्य विजयाय I
तदेव शूलिना दत्तं पुरा दुर्वाससे मुने II II

 दुर्वाससा यद् दत्तं सुचन्द्राय महात्मने I
 अतिगुह्यतरं तत्त्वं सर्वमन्त्रौघविग्रहम् II II

  ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा मे पातु मस्तकम् I
 क्लीं कपालं सदा पातु ह्रीं ह्रीं ह्रींमिति लोचने II १० II

ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा नासिकां मे सदावतु I
 क्लीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा दन्तं सदावतु II ११ II

ह्रीं भद्रकालिके स्वाहा पातु मेsधरयुग्मकम् I
  ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा कण्ठं सदावतु II १२ II

  ह्रीं कालिकायै स्वाहा कर्णयुग्मं सदावतु I
  क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा स्कन्धं पातु सदा मम II १३ II

  क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा मम वक्षः सदावतु I
क्रीं कालिकायै स्वाहा मम नाभिं सदावतु II १४ II

  ह्रीं कालिकायै स्वाहा मम पृष्टं सदावतु I
 रक्तबीजविनाशिन्यै स्वाहा हस्तौ सदावतु II १५ II

  ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा पादौ सदावतु I
ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा सर्वाङ्गं मे सदावतु II १६ II

प्राच्यां पातु महाकाली आग्नेय्यां रक्तदन्तिका I
 दक्षिणे पातु चामुण्डा नैऋत्यां पातु कालिका II १७ II

 श्यामा वारुणे पातु वायव्यां पातु चण्डिका I
उत्तरे विकटास्या ऐशान्यां साट्टहासिनि II १८ II

 ऊर्ध्वं पातु लोलजिह्वा मायाद्या पात्वधः सदा I
 जले स्थले चान्तरिक्षे पातु विश्वप्रसूः सदा II १९ II

 इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् I
 सर्वेषां कवचानां सारभूतं परात्परम् II २० II

सप्तद्वीपेश्वरो राजा सुचन्द्रोSस्य प्रसादतः I
 कवचस्य प्रसादेन मान्धाता पृथिवीपतिः II २१ II

 प्रचेता लोमशश्चैव यतः सिद्धो बभूव I
 यतो हि योगिनां श्रेष्टः सौभरिः पिप्पलायनः II २२ II

 यदि स्यात् सिद्धकवचः सर्वसिद्धीश्वरो भवेत् I
 महादानानि सर्वाणि तपांसि व्रतानि I
 निश्चितं कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् II २३ II

 इदं कवचमज्ञात्वा भजेत् कालीं जगत्प्रसूम् I
 शतलक्षप्रजप्तोSपि मन्त्रः सिद्धिदायकः II २४ II

 II इति श्रीब्रह्मवैवर्ते कालीकवचं संपूर्णम् II

स्रोत :- दशाक्षरी विद्या तथा कालीकवच का यह वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के गणपतिखण्ड में किया गया है।
https://en.wikipedia.org/wiki/Tripurasura

Kali Kavacham
Narad uvacha
kavacham shrotumichami tam cha vidyam dashaksharim I
natha tvatto hi sarvadnya bhadrakalyashcha sampratam II 1 II
narayan uvacha
shrunu narad vakshyami mahavidyam dashaksharim I
gopaniyam cha kavacham trishu lokeshu durlabham II 2 II
om hrim shrim klim kalikayai svaheti cha dashaksharim I
durvasa hi dadou radnye pushkare suryaparvani II 3 II
dashalakshajapenaiv mantrasiddhihi kruta pura I
panchalakshajapenaiv pathan kavachamutamam II 4 II
babhuv siddhakavachoapyayodhyamajagam saha I
krutsnaam hi pruhivim jigye kavachasya prasadataha II 5 II
narad uvacha
shruta dashakshari vidya trishu lokeshu durlabha I
adhuna shrotumichchhami kavacham bruhi me prabho II 6 II
narayana uvacha
shruta vakshyami viprendra kavacham paramadbhutam I
narayanen yad dattam krupaya shooline pura II 7 II
tripurasya vadhe ghore shivasya vaijayay cha I
tadev shoolina dattam pura durvasase mune II 8 II
durvasasa cha yad dattam suchandray mahatmne I
atiguhyataram tattvam sarvamantroughavighraham II 9 II
om hrim shrim klim kalikayai svaha me patu mastakam I
klim kapalam sada patu hrim hrim hrim iti lochane II 10 II
om hrim trilochane svaha nasikam me sadavatu I
klim kalike raksha raksha svaha dantam sadavatu II 11 II
hrim bhadrakalike svaha patu meadharyugakam I
om hrim hrim klim kalikayai svaha kantham sadavatu II 12 II
om hrim kalikayai swaha karnyugamam sadavatu I
om krim krim klim kalyai swaha skandham patu sada mama II 13
II
om krim bhadrakalyai swaha mama vakshaha sdavatu I
om krim kalikayai swaha mama nabhim sdavatu II 14 II
om hrim kalikayai swaha mama prushtam sdavatu I
raktabijavinashinyai swaha hastou sdavatu II 15 II
om hrim klim mundamalinyai swaha padou sdavatu I
om hrim chamundayai swaha sarvangam me sdavatu II 16 II
prachyam patu mahakali aagneyyam raktadantika I
dakshine patu chamunda nairutyam patu kalika II 17 II
shyama cha varune patu vayvyam patu chandika I
uttare vikatasya cha aishanyam sattahasini II 18 II
urdhavam patu liljihva mayadya patvadhaha sada I
jale sthale chantarikshe patu vishvaprasuhu sada II 19 II
iti te kathitam vatsa sarvamantroughvigraham I
sarvesham kavachanam cha sarbhutam paratparam II 20 II
saptadvipeshvaro raja suchandroasya prasadataha I
kavachasya prasaden mandhata prutivipatihi II 21 II
pracheta lomshashchaiva yataha siddho babhuva ha I
yato hi yogino shreshtaha soubharihi pappalayanaha II 22 II
yadi syat siddhkavachaha sarvasiddhishvaro bhavet I
mahadanani sarvani tapansi cha vratani cha I
nishchitam kavachasya kalam narhati shodashim II 23 II
idam kavachamadnaytva bhajet kalim jagatprasum I
shatalakshaprajaptoapi na mantraha siddhidayakaha II 24 II

II iti shribrahmavaivarte kalikavacham sampoornam II
Kali Kavacham
Kali Kavacham is in Sanskrit.
It is also called as Dashakshari Vidya which is in Ganapati kanda of Brahmavaivarta Poorana.
(Adhya 37—1 to 24).
It is told to Brahma Rushi Narad by God Narayan.

Narad Said: O! God Narayana I like to hear Bhadra
Kali-Kavacha or Dashakshari Vidya from your mouth.
God Narayan said to Narad that I am telling you Dashakshari MahaVidya
Om hrim shrim clim kalikayai
and very secret Kavacha which is scarce in three lokas
(Pruthavi loka, Swarga)
swaha” is the Dashakshari Vidya.
It was given to king by Durvasa. The king chanted this

mantra for 10 lakh times. After chanting it for 5 lakh times .





1 The Kali Kavach is a Vedic Stotra dedicated to the worship of Maha Kali, which is inscribed in Brahma Vaivarta Purana along with its benefits.


2 It is believed that Goddess Kali purifies the conscience and shield those who chant the Kali Kavach from evil.

3 The two sets of Kali Kavacha are famous in Hinduism, the original one was told by Lord Vishnu to Lord Shiva during the slaying of Tripurasura.
https://en.wikipedia.org/wiki/Tripurasura

4 The other one known to many is a conversation between Maharishi Narada and Narayana (Lord Vishnu).

5 The wordings of both the versions mainly glorify the powers and the appearance of fierce Maha Kali.

6 This powerful Sanskrit prayer got popularly used for showing gratitude towards the goddess and seek her protection from evils.

7 If recited with full faith and devotion just once in the morning, this Kavch can provide complete protection to the follower.

8 Reciting the Kavach a couple of times can bring forth other favors like repelling uncertainty and removal of negative energy in the family and work.



Tripurasura (Sanskrit: त्रिपुरासुर) is a trio of asura brothers named Tarakaksha, Vidyunmāli and Kamalaksha, who were the sons of the demon Tarakasura. These three began to perform tapasya. For a hundred years they meditated standing only on one leg. For a thousand more years they lived on air and meditated. They stood on their heads and meditated in this posture for yet another thousand years.

Brahma was pleased at this difficult tapasya. He appeared before them and said, "What boon do you want?" "Make us immortal", answered Tarakasura's sons. "I can’t make you immortal", replied Brahma. "I don’t have the power. Ask for something else instead". "Very well", then, said Tarakaksha, Vidyunmāli and Kamalaksha. "Grant us the following: Let three forts be made. The first will be of gold, the second of silver and the third of iron. We will live in these forts for a thousand years. These forts built in different worlds shall align once in every 1000 years. This combined fort will be called Tripura. And if anyone can then destroy Tripura with only a single arrow that shall be the death destined for us".

This rather unusual boon Brahma granted. There was a danava named Maya who was very good at building work. Brahma asked him to build the forts. The golden fort was built in heaven, the silver one in the sky and the iron one on earth. Tarakaksha got the golden fort, Kamalaksha the silver one and Vidyunmali the iron one. Each of the forts was a big as a city and had many palaces and vimanas (space vehicles) inside.

The demons populated the three forts and began to flourish. The demigods did not like this at all. They first went to Brahma, but Brahma said he could not help them. After all, the demons had got Tripura thanks to his boon. The gods then went to Shiva for help. But Shiva said that the demons were doing nothing wrong. As long as that was the case, he did not see why the demigods were so bothered. They next went to Vishnu, who suggested that if the problem was that the demons were doing nothing wrong, then the solution was to persuade them to become sinners.

Out of his powers Vishnu created a man. This man's head was shaven, his clothes were faded and he carried a wooden water-pot in his hands. He covered his mouth with a piece of cloth and approached Vishnu. "What are my orders?" he asked Vishnu.

"Let me explain to you why you have been created", replied Vishnu. "I will teach you a religion that is completely against the Vedas. You will then get the impression that there is no Svarga (heaven) and no Naraka (hell) and that both heaven and hell are on earth. You will not believe that rewards and punishments for deeds committed on earth are meted out after death. Go to Tripura and teach the demons this religion, by which they will be dislodged from the righteous path. Then we will do something about Tripura".

The being did as he had been asked to. He and four of his disciples went to a forest that was near Tripura and began to preach. They were trained by Vishnu himself. Therefore, their teachings were convincing and they had many converts. Even the sage Narada got confused and was converted. In fact, it was Narada who carried news of this wonderful new religion to King Vidyunmali. "King" he said, "there is a wonderful new teacher with a wonderful new religion. I have never heard before. I have been converted."

Since the great sage Narada had been converted, Vidyunmali also accepted the new religion, and in due course, so did Tarakaksha and Kamalaksha. The demons gave up revering the Vedas, they stopped worshipping Shiva linga.

Now the gods then went to Shiva and began to pray to him. When Shiva appeared, they told him that the demons had now become evil and should be destroyed. They had even stopped worshipping Shiva's linga.

Shiva agreed to destroy Tripura. Vishvakarma was the architect of the gods. Shiva called Vishvakarma and asked him to make a suitable chariot, bow and arrow. The chariot was made entirely out of gold. Brahma himself became the charioteer and the chariot was speedily driven towards Tripura. The gods accompanied Shiva with diverse weapons.

When Shiva's army reached the battlefield, the three forts were about to merge into a single Tripura, which condition would last for just a second. At the exact time, Lord Shiva invoked the most destructive weapon controlled by Him, the Pashupatastra. The Destroyer's capable arms fired a single arrow into the three forts at the exact instant they merged into one, thus burning to ashes the three forts of the asuras. Shiva thus earned Himself the epithet Tripurantaka - the one who ended Tripura. He also earned the epithet Tripurari.

Another version that is widely quoted in Tamil literature has Lord Shiva destroy Tripura with a mere smile. When all the battlefield was filled with warriors, with Brahma and Vishnu in attendance, there occurred the instant when the forts came together. Lord Shiva merely smiled. The forts were burned to ashes. The battle was over before it began! In Tamil, Lord Shiva has the epithet, "Sirithu Purameritha Peruman" which means, He who burnt the cities with a mere smile.

While the celebrations were going on, the shaven-heads religious teachers arrived. "What are we supposed to do now?" they asked.


Brahma and Vishnu told them to go the desert where there are no humans. The last of the four eras was kaliyuga and in kaliyuga, evil would reign supreme. When kaliyuga arrived, they were to come back and begin their teaching afresh. And once they reached at their peak god will take rebirth and will wipe them from earth and once again the world will be free from all kinds of demons.

https://en.wikipedia.org/wiki/Kartik_Purnima


॥अथ श्री देव्याः कवचम्॥

अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः,
चामुण्डा देवता, अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम्, दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्,
श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियगः।

नमश्चण्डिकायै॥

मार्कण्डेय उवाच

यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥

ब्रह्मोवाच

अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥२॥

प्रथमं शैलपुत्री द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥३॥

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥४॥

नवमं सिद्धिदात्री नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥५॥

अग्निना दह्यमानस्तु शतरुमध्ये गतो रणे।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥६॥

तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं हि॥७॥

यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥८॥

प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना।
ऐन्द्री गजसमारुढा वैष्णवी गरुडासना॥९॥

माहेश्वरी वृषारुढा कौमारी शिखिवाहना।
लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥१०॥

श्वेतरुपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना।
ब्राह्मी हंससमारुढा सर्वाभरणभूषिता॥११॥

इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः।
नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः॥१२॥

दृश्यन्ते रथमारुढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः।
शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं मुसलायुधम्॥१३॥

खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च।
कुन्तायुधं त्रिशूलं शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्॥१४॥

दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च।
धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां हिताय वै॥१५॥

नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥१६॥

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि।
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता॥१७॥

दक्षिणेऽवतु वाराही नैर्ऋत्यां खड्गधारिणी।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥१८॥

उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा॥१९॥

एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना।
जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः॥२०॥

अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता।
शिखामुद्योतिनि रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥२१॥

मालाधरी ललाटे भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी।
त्रिनेत्रा भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा नासिके॥२२॥

शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी।
कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी॥२३॥

नासिकायां सुगन्धा उत्तरोष्ठे चर्चिका।
अधरे चामृतकला जिह्वायां सरस्वती॥२४॥

दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका।
घण्टिकां चित्रघण्टा महामाया तालुके ॥२५॥

कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमङ्गला।
ग्रीवायां भद्रकाली पृष्ठवंशे धनुर्धरी॥२६॥

नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी।
स्कन्धयोः खङ्गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी॥२७॥

हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च।
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी॥२८॥

स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥२९॥

नाभौ कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा।
पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी ॥३०॥

कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी।
जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ॥३१॥

गुल्फयोर्नारसिंही पादपृष्ठे तु तैजसी।
पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी॥३२॥

नखान् दंष्ट्राकराली केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी।
रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा॥३३॥

रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती।
अन्त्राणि कालरात्रिश् पित्तं मुकुटेश्वरी॥३४॥

पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा।
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु॥३५॥

शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा।
अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥३६॥

प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं समानकम्।
वज्रहस्ता मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥३७॥

रसे रुपे गन्धे शब्दे स्पर्शे योगिनी।
सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥३८॥

आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी।
यशः कीर्तिं लक्ष्मीं धनं विद्यां चक्रिणी॥३९॥

गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥४०॥

पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥४१॥

रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु।
तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी॥४२॥

पदमेकं गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः।
कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति॥४३॥

तत्र तत्रार्थलाभश् विजयः सार्वकामिकः।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्॥४४॥

निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः।
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्॥४५॥

इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम्
यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥४६॥

दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः।
जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः। ४७॥

नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः।
स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥४८॥

अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले।
भूचराः खेचराश्चैव जलजाश्चोपदेशिकाः॥४९॥

सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा।
अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश् महाबलाः॥५०॥

ग्रहभूतपिशाचाश् यक्षगन्धर्वराक्षसाः।
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ॥५१॥

नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते।
मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम्॥५२॥

यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले।
जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा॥५३॥

यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्।
तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी॥५४॥

देहान्ते परमं स्थानं यत्सुररपि दुर्लभम्।
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥५५॥

लभते परमं रुपं शिवेन सह मोदते॥ॐ॥५६॥

इति देव्याः कवचं सम्पूर्णम्।
Hindi Translation

देवी कवच में शरीर के समस्त अंगों का उल्लेख है। देवी कवच पढते जाइये, और भगवती से कामना करते रहें कि हम निरोगी रहें: नमश्चण्डिक- ायै।

यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाक- रं नृणाम्।

यन्- कस्य चिदाख्यातं- तन्मे ब्रूहि पितामह॥1

- ार्कण्डेय उवाच॥

मार्क- ण्डेय जी ने कहा हे पितामह! जो इस संसार में परम गोपनीय तथा मनुष्यों की सब प्रकार से रक्षा करने वाला है और जो अब तक आपने दूसरे किसी के सामने प्रकट नहीं किया हो, ऐसा कोई साधन मुझे बताइये।

॥ब्- रह्मोवाच॥

- स्ति गुह्यतमं विप्रा सर्वभूतोपक- ारकम्।

दिव्- यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व- ा महामुने॥2

- ्रह्मन्! ऐसा साधन तो एक देवी का कवच ही है, जो गोपनीय से भी परम गोपनीय, पवित्र तथा सम्पूर्ण प्राणियों का उपकार करनेवाला है। महामुने! उसे श्रवण करो।

प्रथमं- शैलपुत्री द्वितीयं ब्रह्मचारि- णी।

तृतीयं चन्द्रघण्ट- ेति कूष्माण्डे- ति चतुर्थकम्॥- 3

प्रथम नाम शैलपुत्री है, दूसरी मूर्तिका नाम ब्रह्मचारि- णी है। तीसरा स्वरूप चन्द्रघण्ट- ा के नामसे प्रसिद्ध है। चौथी मूर्ति को कूष्माण्डा- कहते हैं।

पञ्चमं- स्कन्दमाते- ति षष्ठं कात्यायनीत- ि

सप्तमं कालरात्रीत- ि महागौरीति चाष्टमम्॥4-

पाँचवीं दुर्गा का नाम स्कन्दमाता- है। देवी के छठे रूप को कात्यायनी कहते हैं। सातवाँ कालरात्रि और आठवाँ स्वरूप महागौरी के नाम से प्रसिद्ध है।

नवमं सिद्धिदात्- री नव दुर्गाः प्रकीर्तित- ाः

उक्तान्- येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥5-

नवीं दुर्गा का नाम सिद्धिदात्- री है। ये सब नाम सर्वज्ञ महात्मा वेदभगवान् के द्वारा ही प्रतिपादित- हुए हैं।

अग्निना दह्यमानस्त- ु शत्रुमध्ये- गतो रणे।

विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥6

जो मनुष्य अग्नि में जल रहा हो, रणभूमि में शत्रुओं से घिर गया हो, विषम संकट में फँस गया हो तथा इस प्रकार भय से आतुर होकर जो भगवती दुर्गा की शरण में प्राप्त हुए हों, उनका कभी कोई अमङ्गल नहीं होता।

तेषां जायते किञ्चिदशुभ- ं रणसङ्कटे।

- ापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं- ही॥7

युद्ध समय संकट में पड़ने पर भी उनके ऊपर कोई विपत्ति नहीं दिखाई देती। उनके शोक, दु: और भय की प्राप्ति नहीं होती।

यैस्त- ु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते।

- े त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥8

जि- ्होंने भक्तिपूर्व- देवी का स्मरण किया है, उनका निश्चय ही अभ्युदय होता है। देवेश्वरि! जो तुम्हारा चिन्तन करते हैं, उनकी तुम नि:सन्देह रक्षा करती हो।

प्रेतसं- स्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना।

- न्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना॥9-

चामुण्डाद- वी प्रेत पर आरूढ़ होती हैं। वाराही भैंसे पर सवारी करती हैं। ऐन्द्री का वाहन ऐरावत हाथी है। वैष्णवी देवी गरुड़ पर ही आसन जमाती हैं।

माहेश्- वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना।-

लक्ष्मी: पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥- 10

माहेश्वर- वृषभ पर आरूढ़ होती हैं। कौमारी का मयूर है। भगवान् विष्णु की प्रियतमा लक्ष्मीदेव- ी कमल के आसन पर विराजमान हैं,और हाथों में कमल धारण किये हुए हैं।

श्वेतर- ूपधारा देवी ईश्वरी वृषवाहना।

- ्राह्मी हंससमारूढा- सर्वाभरणभू- षिता॥ 11

वृषभ पर आरूढ़ ईश्वरी देवी ने श्वेत रूप धारण कर रखा है। ब्राह्मी देवी हंस पर बैठी हुई हैं और सब प्रकार के आभूषणों से विभूिषत हैं।

इत्येत- ा मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन- ्विताः।

नान- ाभरणशोभाढय- ा नानारत्नोप- शोभिता: 12

इस प्रकार ये सभी माताएँ सब प्रकार की योग शक्तियों से सम्पन्न हैं। इनके सिवा और भी बहुत-सी देवियाँ हैं, जो अनेक प्रकार के आभूषणों की शोभा से युक्त तथा नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित हैं।

दृश्यन- ्ते रथमारूढा देव्याः क्रोधसमाकु- ला: शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं मुसलायुधम्- 13

खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च। कुन्तायुधं- त्रिशूलं शार्ङ्गमाय- ुधमुत्तमम्- 14

दैत्याना- देहनाशाय भक्तानामभय- ा च। धारयन्त्या- युद्धानीथं- देवानां हिताय वै॥ 15

ये सम्पूर्ण देवियाँ क्रोध में भरी हुई हैं और भक्तों की रक्षा के लिए रथ पर बैठी दिखाई देती हैं। ये शङ्ख, चक्र, गदा, शक्ति, हल और मूसल, खेटक और तोमर, परशु तथा पाश, कुन्त त्रिशूल एवं उत्तम शार्ङ्गधनु- आदि अस्त्र-शस्- ् अपने हाथ में धारण करती हैं। दैत्यों के शरीर का नाश करना,भक्तो- को अभयदान देना और देवताओं का

कल्याण करना यही उनके शस्त्र-धार- का उद्देश्य है।

नमस्तेऽ- स्तु महारौद्रे महाघोरपराक- ्रमे।

महाबल- े महोत्साहे महाभयविनाश- िनि॥16

महान- रौद्ररूप, अत्यन्त घोर पराक्रम, महान् बल और महान् उत्साह वाली देवी तुम महान् भय का नाश करने वाली हो,तुम्हें नमस्कार है

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्- ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि।- प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्रि- आग्नेय्याम- ग्निदेवता॥- 17

दक्षिणेऽ- तु वाराही नैऋत्यां खङ्गधारिणी- प्रतीच्यां- वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥- 18

तुम्हारी और देखना भी कठिन है। शत्रुओं का भय बढ़ाने वाली जगदम्बिक मेरी रक्षा करो। पूर्व दिशा में ऐन्द्री इन्द्रशक्त- ि)मेरी रक्षा करे। अग्निकोण में अग्निशक्ति- ,दक्षिण दिशा में वाराही तथा नैर्ऋत्यको- में खड्गधारिणी- मेरी रक्षा करे। पश्चिम दिशा में वारुणी और वायव्यकोण में मृग पर सवारी करने वाली देवी मेरी रक्षा करे।

उदीच्य- ां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी।-

ऊर्ध्वं ब्रह्माणी में रक्षेदधस्त- ाद् वैष्णवी तथा॥ 19

उत्तर दिशा में कौमारी और ईशानकोण में शूलधारिणी देवी रक्षा करे। ब्रह्माणि!- ु ऊपर की ओर से मेरी रक्षा करो और वैष्णवी देवी नीचे की ओर से मेरी रक्षा करे

एवं दश दिशो रक्षेच्चाम- ुण्डा शववाहाना।

- ाया मे चाग्रतः पातु: विजया पातु पृष्ठतः॥ 20

इसी प्रकार शव को अपना वाहन बनानेवाली चामुण्डा देवी दसों दिशाओं में मेरी रक्षा करे। जया आगे से और विजया पीछे की ओर से मेरी रक्षा करे।

अजिता वामपार्श्व- े तु दक्षिणे चापराजिता।-

शिखामुद्यो- तिनि रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता- 21

वामभाग में अजिता और दक्षिण भाग में अपराजिता रक्षा करे। उद्योतिनी शिखा की रक्षा करे। उमा मेरे मस्तक पर विराजमान होकर रक्षा करे।

मालाधा- री ललाटे भ्रुवो रक्षेद् यशस्विनी।

- ्रिनेत्रा भ्रुवोर्मध- ्ये यमघण्टा नासिके॥ 22

ललाट में मालाधरी रक्षा करे और यशस्विनी देवी मेरी भौंहों का संरक्षण करे। भौंहों के मध्य भाग में त्रिनेत्रा- और नथुनों की यमघण्टा देवी रक्षा करे।

शङ्खिन- ी चक्षुषोर्म- ध्ये श्रोत्रयोर- ्द्वारवासि- नी।

कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्- णमूले तु शङ्करी 23

ललाट में मालाधरी रक्षा करे और यशस्विनी देवी मेरी भौंहों का संरक्षण करे। भौंहों के मध्य भाग में त्रिनेत्रा- और नथुनों की यमघण्टा देवी रक्षा करे।

नासिका- यां सुगन्धा उत्तरोष्ठे- चर्चिका।

अध- रे चामृतकला जिह्वायां सरस्वती॥ 24

नासिका में सुगन्धा और ऊपर के ओंठ में चर्चिका देवी रक्षा करे। नीचे के ओंठ में अमृतकला तथा जिह्वा में सरस्वती रक्षा करे।

दन्तान- ् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका।

घण- ्टिकां चित्रघण्टा- महामाया तालुके॥ 25

कौमारी दाँतों की और चण्डिका कण्ठप्रदेश- की रक्षा करे। चित्रघण्टा- गले की घाँटी और महामाया तालु में रहकर रक्षा करे।

कामाक्- षी चिबुकं रक्षेद्वाचं मे सर्वमङ्गला-

ग्रीवायां- भद्रकाली पृष्ठवंशे धनुर्धारी॥- 26

कामाक्षी ठोढी की और सर्वमङ्गला- मेरी वाणी की रक्षा करे। भद्रकाली ग्रीवा में और धनुर्धरी पृष्ठवंश (मेरुदण्ड)- ं रहकर रक्षा करे।

नीलग्र- ीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी।

स्- कन्धयोः खङ्गिनी रक्षेद्बाहू मे वज्रधारिणी- 27

कण्ठ के बाहरी भाग में नीलग्रीवा और कण्ठ की नली में नलकूबरी रक्षा करे। दोनों कंधों में खड्गिनी और मेरी दोनों भुजाओं की वज्रधारिणी- रक्षा करे।

हस्तयो- र्दण्डिनी रक्षेदम्बि- का चान्गुलीषु- च।

नखाञ्छूल- ेश्वरी रक्षेत्कुक- ्षौ रक्षेत्कुल- ेश्वरी॥28

- नों हाथों में दण्डिनी और उँगलियों में अम्बिका रक्षा करे। शूलेश्वरी नखों की रक्षा करे। कुलेश्वरी कुक्षि पेट)में रहकर रक्षा करे।

स्तनौ रक्षेन्मह- ादेवी मनः शोकविनाशिन- ी

हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥- 29

महादेवी दोनों स्तनों की और शोकविनाशिन- ी देवी मन की रक्षा करे। ललिता देवी हृदय में और शूलधारिणी उदर में रहकर रक्षा करे।

नाभौ कामिनी रक्षेद्गुह्यं गुह्येश्वर- ी तथा। पूतना कामिका मेढ्रं गुडे महिषवाहिनी- 30

कट्यां भगवतीं रक्षेज्जान- ूनी विन्ध्यवास- िनी। जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्- वकामप्रदाय- िनी॥31

नाभि में कामिनी और गुह्यभाग की गुह्येश्वर- ी रक्षा करे। पूतना और कामिका लिङ्ग की और महिषवाहिनी- गुदा की रक्षा करे। भगवती कटि भाग में और विन्ध्यवास- िनी घुटनों की रक्षा करे। सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाली महाबला देवी दोनों पिण्डलियों- की रक्षा करे।

गुल्फय- ोर्नारसिंह- ी पादपृष्ठे तु तैजसी।

पादा- ङ्गुलीषु श्रीरक्षेत- ्पादाध:स्त- वासिनी॥32

- ारसिंही दोनों घुट्ठियों की और तैजसी देवी दोनों चरणों के पृष्ठभाग की रक्षा करे। श्रीदेवी पैरों की उँगलियों में और तलवासिनी पैरों के तलुओं में रहकर रक्षा करे।

नखान् दंष्ट्रा कराली केशांशचैवो- र्ध्वकेशिन- ी

रोमकूपेष- ु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा॥33

अपनी दाढों के कारण भयंकर दिखायी देनेवाली दंष्ट्राकर- ाली देवी नखों की और ऊर्ध्वकेशि- नी देवी केशों की रक्षा करे। रोमावलियों- के छिद्रों में कौबेरी और त्वचा की वागीश्वरी देवी रक्षा करे।

रक्तमज- ्जावसामांस- ान्यस्थिमे- दांसि पार्वती। अन्त्राणि कालरात्रिश- ् पित्तं मुकुटेश्वर- ी 34

पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्त- था। ज्वालामुखी- नखज्वालामभ- ेद्या सर्वसन्धिष- ु35

पार्वती देवी रक्त, मज्जा, वसा, माँस, हड्डी और मेद की रक्षा करे। आँतों की कालरात्रि और पित्त की मुकुटेश्वर- ी रक्षा करे। मूलाधार आदि कमल-कोशों में पद्मावती देवी और कफ में चूड़ामणि देवी स्थित होकर रक्षा करे। नख के तेज की ज्वालामुखी- रक्षा करे। जिसका किसी भी अस्त्र से भेदन नहीं हो सकता, वह अभेद्या देवी शरीर की समस्त संधियों में रहकर रक्षा करे।

शुक्रं- ब्रह्माणी मे रक्षेच्छाय- ां छत्रेश्वरी- तथा।

अहङ्का- रं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी- 36

ब्रह्मा- ी!आप मेरे वीर्य की रक्षा करें। छत्रेश्वरी- छाया की तथा धर्मधारिणी- देवी मेरे अहंकार,मन और बुद्धि की रक्षा करे।

प्राणा- पानौ तथा व्यानमुदान- ं समानकम्।

वज- ्रहस्ता मे रक्षेत्प्र- ाणं कल्याणशोभन- ा37

हाथ में वज्र धारण करने वाली वज्रहस्ता देवी मेरे प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान वायु की रक्षा करे। कल्याण से शोभित होने वाली भगवती कल्याण शोभना मेरे प्राण की रक्षा करे।

रसे रूपे गन्धे शब्दे स्पर्शे योगिनी।

सत्- वं रजस्तमश्चै- रक्षेन्नार- ायणी सदा॥38

रस, रूप, गन्ध, शब्द और स्पर्श इन विषयों का अनुभव करते समय योगिनी देवी रक्षा करे तथा सत्त्वगुण,- जोगुण और तमोगुण की रक्षा सदा नारायणी देवी करे।

आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी।

यश- ः कीर्तिं लक्ष्मीं धनं विद्यां चक्रिणी॥39

- ाराही आयु की रक्षा करे। वैष्णवी धर्म की रक्षा करे तथा चक्रिणी चक्र धारण करने वाली)देवी यश,कीर्ति,- ्ष्मी,धन तथा विद्या की रक्षा करे।

आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी।

यश- ः कीर्तिं लक्ष्मीं धनं विद्यां चक्रिणी॥40

- न्द्राणि! आप मेरे गोत्र की रक्षा करें। चण्डिके! तुम मेरे पशुओं की रक्षा करो। महालक्ष्मी- पुत्रों की रक्षा करे और भैरवी पत्नी की रक्षा करे।

पन्थान- ं सुपथा रक्षेन्मार- ्गं क्षेमकरी तथा।

राजद्व- ारे महालक्ष्मी- र्विजया सर्वतः स्थिता॥ 41

मेरे पथ की सुपथा तथा मार्ग की क्षेमकरी रक्षा करे। राजा के दरबार में महालक्ष्मी- रक्षा करे तथा सब ओर व्याप्त रहने वाली विजया देवी सम्पूर्ण भयों से मेरी रक्षा करे।

रक्षाह- ीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु।

तत्सर्व- ं रक्ष मे देवी जयन्ती पापनाशिनी॥- 42

देवी! जो स्थान कवच में नहीं कहा गया है, रक्षा से रहित है,वह सब तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हो;क्योंकि तुम विजयशालिनी- और पापनाशिनी हो।

रक्षाही- नं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु। तत्सर्वं रक्ष मे देवी जयन्ती पापनाशिनी॥- 43

पदमेकं गच्छेतु यदिच्छेच्छ- ुभमात्मनः।- कवचेनावृतो- नित्यं यात्र यत्रैव गच्छति॥44

- ् तत्रार्थला- भश्च विजयः सर्वकामिकः- यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति- निश्चितम्।-

परमैश्वर्य- मतुलं प्राप्स्यत- े भूतले पुमान्॥44

- ि अपने शरीर का भला चाहे तो मनुष्य बिना कवच के कहीं एक पग भी जाए। कवच का पाठ करके ही यात्रा करे। कवच के द्वारा सब ओर से सुरक्षित मनुष्य जहाँ-जहाँ भी जाता है,वहाँ-वहा- उसे धन-लाभ होता है तथा सम्पूर्ण कामनाओं की सिद्धि करने वाली विजय की प्राप्ति होती है। वह जिस-जिस अभीष्ट वस्तु का चिन्तन करता है, उस-उसको निश्चय ही प्राप्त कर लेता है। वह पुरुष इस पृथ्वी पर तुलना रहित महान् ऐश्वर्य का भागी होता है।

निर्भयो- जायते मर्त्यः सङ्ग्रमेष्- वपराजितः।

- ्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्य- ः कवचेनावृतः- पुमान्॥45

- से सुरक्षित मनुष्य निर्भय हो जाता है। युद्ध में उसकी पराजय नहीं होती तथा वह तीनों लोकों में पूजनीय होता है।

इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम्। : पठेत्प्रयत- ो नित्यं त्रिसन्ध्य- ं श्रद्धयान्- वितः॥46

दैव- कला भवेत्तस्य त्रैलोक्ये- ष्वपराजितः- जीवेद् वर्षशतं साग्रामपमृ- त्युविवर्ज- ितः॥47

देवी का यह कवच देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। जो प्रतिदिन नियमपूर्वक- तीनों संध्याओं के समय श्रद्धा के साथ इसका पाठ करता है,उसे दैवी कला प्राप्त होती है। तथा वह तीनों लोकों में कहीं भी पराजित नहीं होता। इतना ही नहीं, वह अपमृत्यु रहित हो, सौ से भी अधिक वर्षों तक जीवित रहता है।

नश्यन्त- ि टयाधय: सर्वे लूताविस्फो- टकादयः। स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥ 48

अभिचाराण- सर्वाणि मन्त्रयन्त- ्राणि भूतले। भूचराः खेचराशचैव जलजाश्चोपद- ेशिकाः॥49

- जा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा। अन्तरिक्षच- रा घोरा डाकिन्यश्च- महाबला॥ 50

ग्रहभूतप- शाचाश्च यक्षगन्धर्- वराक्षसा: ब्रह्मराक्- षसवेतालाः कूष्माण्डा- भैरवादयः॥ 51

नश्यन्ति दरशनात्तस- ् कवचे हृदि संस्थिते। मानोन्नतिर- ्भावेद्राज- ्यं तेजोवृद्धि- करं परम्॥ 52

मकरी, चेचक और कोढ़ आदि उसकी सम्पूर्ण व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं। कनेर,भाँग,- ी,धतूरे आदि का स्थावर विष,साँप और बिच्छू आदि के काटने से चढ़ा हुआ जङ्गम विष तथा अहिफेन और तेल के संयोग आदि से बनने वाला कृत्रिम विष-ये सभी प्रकार के विष दूर हो जाते हैं,उनका कोई असर नहीं होता।

इस पृथ्वी पर मारण-मोहन आदि जितने आभिचारिक प्रयोग होते हैं तथा इस प्रकार के मन्त्र-यन्- ् होते हैं, वे सब इस कवच को हृदय में धारण कर लेने पर उस मनुष्य को देखते ही नष्ट हो जाते हैं। ये ही नहीं,पृथ्व- पर विचरने वाले ग्राम देवता,आकाश- ारी देव विशेष,जल के सम्बन्ध से प्रकट होने वाले गण,उपदेश मात्र से सिद्ध होने वाले निम्नकोटि के देवता,अपने जन्म से साथ प्रकट होने वाले देवता, कुल देवता, माला (कण्ठमाला आदि), डाकिनी, शाकिनी, अन्तरिक्ष में विचरण करनेवाली अत्यन्त बलवती भयानक डाकिनियाँ,- ्रह, भूत, पिशाच, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, ब्रह्मराक्- षस, बेताल, कूष्माण्ड और भैरव आदि अनिष्टकारक- देवता भी हृदय में कवच धारण किए रहने पर उस मनुष्य को देखते ही भाग जाते हैं। कवचधारी पुरुष को राजा से सम्मान वृद्धि प्राप्ति होती है। यह कवच मनुष्य के तेज की वृद्धि करने वाला और उत्तम है।

नश्यन्त- ि दर्शनात्तस- ् कवचे हृदि संस्थिते। मानोन्नतिर- ्भावेद्राज- ्यं तेजोवृद्धि- करं परम्॥ 53

यशसा वद्धते सोऽपी कीर्तिमण्ड- ितभूतले। जपेत्सप्तश- तीं चणण्डीं कृत्वा तु कवचं पूरा॥ 54

यावद्भूम- ्डलं धत्ते सशैलवनकानन- म्। तावत्तिष्ठ- ति मेदिनयां सन्ततिः पुत्रपौत्र- िकी॥54

कवच का पाठ करने वाला पुरुष अपनी कीर्ति से विभूषित भूतल पर अपने सुयश से साथ-साथ वृद्धि को प्राप्त होता है। जो पहले कवच का पाठ करके उसके बाद सप्तशती चण्डी का पाठ करता है, उसकी जब तक वन, पर्वत और काननों सहित यह पृथ्वी टिकी रहती है, तब तक यहाँ पुत्र-पौत्- आदि संतान परम्परा बनी रहती है।

देहान्त- े परमं स्थानं यात्सुरैरप- ि दुर्लभम्।

- ्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्र- सादतः॥55

लभ- े परमं रूपं शिवेन सह मोदते ॥ॐ॥ 56

देह का अन्त होने पर वह पुरुष भगवती महामाया के प्रसाद से नित्य परमपद को प्राप्त होता है, जो देवतोओं के लिए भी दुर्लभ है। वह सुन्दर दिव्य रूप धारण करता और कल्याण शिव के साथ आनन्द का भागी होता है।

।। इति देव्या: कवचं सम्पूर्णम्-


अठारह प्रमुख पुराणों में से एक मार्कंडेय पुराण के अंदर देवी कवच (दुर्गा कवच) के श्लोक अंतर्भूत है और यह अद्भुत दुर्गा सप्तशती का हिस्सा है। देवी कवच को भगवान ब्रह्मा ने ऋषि मार्कंडेय को सुनाया और इसमें ४७ श्लोक शामिल है इसके बाद श्लोकों में फलश्रुति लिखित है। फलश्रुति का मतलब है, इसको सुनने या पढ़ने से क्या फल प्राप्त होता है यह बताया गया है इसमें भगवान ब्रह्मा देवी पार्वती माँ की नौ अलग-अलग दैवीय रूपों में प्रशंसा करते हैं। भगवान ब्रह्मा प्रत्येक को देवी कवच को पढ़ने और देवी माँ का आशीर्वाद मांगने के ि अनुरोध करते हैं। जो भी इस कवचं का नित्य पाठ करता है वह माँ दुर्गा से आशीर्वाद प्राप्त करता है।
कवच का अर्थ होता है रक्षा करने वाला, अपने चारों ओर एक प्रकार का आवरण बना देना। यह बहुत अच्छा / उत्तम है। देवी कवच (Durga Kavach) के तहत हम देवी माँ के विभिन्न नामों का उच्चारण करते हैं, जो हमारे इर्द-गिर्द, हमारे शरीर के चारो ओर एक कवच का निर्माण कर देते हैं। इसका अनुष्ठान विशेष कर नवरात्रि के सभी नवों दिन में किया जाता है। यह हमारे लिए बहुत जरूरी है।



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